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देश को दल मिला
सौभाग्य से ही, यह बल मिला
नहीं तो, मिट्टी बेचने वालों की चांदी थी
जनता भले ही, उनका मखौल उड़ा रही थी
पर, मूल्य चुका रही थी
देश इन मूल्यों से, लेनेदेन कर रहा था
और, अनुदान से लीपा-पोती
ऐसे में, निराशा घर कर गई थी
अब, आशा की किरण बेचनी थी
बहुत बड़ा बाजार तैयार था
कुकुरमुत्ता की तरह दल भर गए
दिल्ली दूर थी और दल करीब
तो, नजदीकियां बढ़ी
जनता ने जाति का घूंट पिया
फलतः बहुतेरे गरीबी भूल गए
और, मिट्टी बेचने की ठानी|
जिससे, निराशा ने दरार का रूप लिया
फिर, राम आए।

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