वर्षों से चली आ रही है काल चक्र की माया
सतयुग, त्रेता, द्वापर और फिर कलयुग है आया
आया वो ऐसे की धर्म हो गया धूल
रिश्ता अपने ही रिश्तों को मानो जैसे गया हो भूल
बात यह है उस वक्त की जब हरि कृष्ण ने त्यागे प्राण
रोने लगी पृथ्वी देवी जब सीने पर लगे अधर्म के बाण
जब लगा सताने वो पृथ्वी और धर्म को
तब पांडवों का वंशज परीक्षित गुजर रहा था राह से
दोनो की ऐसी हालत देखी न जाए राजा से
उठाया अपना धनुष बाण और तान दिया था कलयुग पर
लगा मांगने माफी कलयुग आ गिरा पैरो पर
माफी बक्शी परीक्षित ने बोला जाओ मेरी सरहद से दूर
पर कलयुग ने किया उन्हें क्षमा याचना मांग कर मजबूर
राजा ने सोच समझकर उसे रहने को दिए चार स्थान
झूठ, हिंसा, परस्त्रीगमन और मद्यपान
लालच बड़ा कलयुग का विनती की राजा से
और पाया स्वर्ण में स्थान|
पाकर स्थान सोने में मंद मंद मुसकाया वो
पल भर में ही बैठ गया राजा के स्वर्ण मुकुट में वो
मिला श्राप फिर राजा को
कुछ दिन में प्राण निकल गए
और कलयुग पृथ्वी पर ही रह गया
समय का पहिया चलता रहा
कलयुग और ताकतवर होता रहा
अस्त्य का बोल बाला बड़ा
स्त्री का होने लगा अपमान
क्रोध आना आम बात बन रही
त्राहि त्राहि मच रही हर जगह
संभोग ही मानो जैसे जीने की हो एक वजह
कैसा ये वक्त आ गया है की पाप पुण्य पर भारी है
अभी तो सिर्फ कलयुग है, बाकी अभी घोर कलयुग की बारी है
चोरी, डकैती, प्रताड़ना, बड़ रहे है बलात्कार
खून खराबा, मार पीट, हो रहा है भ्रष्टाचार
आएगा फिर वो वक्त भी जब कृष्ण लेंगे कल्कि अवतार
उधार होगा पृथ्वी का, आएगा फिर से सतयुग का जीर्णोधार।