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घाव नाख़ून, दांत के, हम ने बहुत देखे मगर,
अदृश्य गहरे घाव दिल को, दे जुबां से आदमी ।

भूत पैसे का जहन पर, इस कदर हावी हुआ है,
अपनी ही संतान का, व्यवसाय करता आदमी ।

दुश्मनी के फन में माहिर, आज हम इतने हुए,
प्यार से ही आदमी को, काटता है आदमी ।

मौत के हर दर्द औ’ गम से, दोस्ताना यूँ हुआ,
उम्र के वरदान को भी, श्राप समझे आदमी ।

मौत के लाखों फ़रिश्ते , ले सिर्फ ऊँगली नोंक पर,
सोचता खुद इस धरा का, है खुदा अब आदमी ।

मौत के अब खेल से, इंसान घबराता नहीं,
इंसानियत के नाम से, डरने लगा है आदमी ।

चाँद पर पहुंचा भला क्या, खाक उसने पा लिया,
अपनी ही पहचान खोता, जा रहा है आदमी ।

विश्वास के मजबूत तन्तु, यूँ बिखरते ही रहे,
आज अपने खून तक से, डर रहा है आदमी ।

आपसी विश्वास देखो, इस कदर जर्जर हुआ,
मनमीत की साँसों को भी, फुफकार समझे आदमी ।

सांस, धड़कन बढ़ रही है, हर जरा सी बात पर,
अपनी ही पदचाप से, अब है परेशां आदमी ।

दम्भ के हर आवरण में, अब खोखले इंसान हैं,
ढकोसलों की मांद में, अब रहने लगा है आदमी ।

बेरोजगारी की समस्या इस तरह बढती रही,
धर्म, इमां बेच कर, अब पेट भरता आदमी ।

अर्थी अभावों की यहाँ और गरीबी का कफ़न,
प्रतिशोध की अब अग्नि में, खुद भस्म होता आदमी ।

फूल माला और गुलदस्ते सम्हल कर लीजिये,
अब गुलों की आड़ में, बम भेंट करते आदमी ।

मूल्य नैतिकता के जब से, भूलता इन्सान गया,
आज अपने ही पतन को अग्रसर है आदमी ।

पैर की बैसाखियों ने, शायद बगावत ठान ली,
झूठ का हर बोझ कब से, ढो रहा है आदमी ।

भूख पैसे की जहन में इस कदर बढती गई,
बीच चौराहे पे ही अब, बिकने लगा है आदमी ।

अब लव जिहादी हो गया है, बस सम्हल कर ही रहो,
शव को भी, टुकड़े टुकड़े करके, फैकता है आदमी ।

प्यार का नाटक रचा कर, फ़ांस लेता जाल में,
फिर आँख, गुर्दे, दिल, जिगर, सब बेच देता आदमी ।  

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