पति के आने से पहले ही, घर को सुन्दर, साफ़ बनाती,
उसके स्वागत में ही, मैं तो, मरती खपती और सजाती,
जब दफ्तर से वापस आता, घर सारा, अस्त व्यस्त हो जाता,
“ मॉडर्न आर्ट ” समान मेरा घर, नई स्टाइल से सज जाता।

शर्ट टंगी है, दरवाजे पर, और स्वेटर कुर्सी पर झूला है,
सूट टांगकर खिड़की पर ही, रोज कहे, वह तो भूला है,
टाई सोफे बीच पड़ी है, फ्रिज के ऊपर रखी घडी है,
ड्राइंग रूम में बूट पड़ा है, कीचड में जो सना, सडा है,
दूजा बूट, पलंग के नीचे, मोजों को अपने में ठूंसे,
जल्दी उठा, ठीक रख देता, जब हँसकर दिखलाती घूंसे।

बेड रूम में अभी गया है, सारा चादर सिकुड़ गया है,
रबर, पेन्सिल, पेन यहाँ है, कागज, कतरन ढेर वहां है,
कहीं चप्पलें पड़ीं हुई हैं, कहीं पड़ा उल्टा जूता है,
ऐसे झगडालू व्यक्ति से, कौन लडे, किस का बूता है?

मुझ को तो ऐसा लगता है, नहीं देख कर यह चलता है,
पाँव सड़क पर चलते लेकिन, और कहीं दीदा चलता है,
हम भी तो बाहर से आते, कभी न इतनी मिट्टी लाते,
पर इसके जूते, चप्पल तो, कीचड, मिट्टी में सन आते,.
तब मैं झाड़ू ले कर इस के, पीछे पीछे ही फिरती हूँ,
बस चरणों की धूल उठाकर, ‘डस्टबीन’ में, मैं भरती हूँ।

रोज जुल्म ऐसे होते हैं, लेकिन उफ़ तक ना करती हूँ,
तुम क्या जानो मेरी मुश्किल, मैं पति से कितना डरती हूँ,
हर पत्नी की यही मुसीबत, हर घर घर की यही कहानी,
इसी बात पर हर घर में ही, चलती रहती जंग जुबानी।

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