अभी कुछ दिन पहले की बात,
शिव - पार्वती,
अपने वाहन को लिए साथ,
साधारण वेशभूषा में,
पृथ्वी ग्रह के भ्रमण पर निकले,
और भारत भू भाग के,
किसी रमणीक स्थल पर उतरे।

दोनों एक साथ नंदी पर सवार,
रास्ते पर थोड़ी दूर ही चले,
मिले कुछ बुजुर्ग और बहुत से मनचले,
देखिये इनके कैसे कैसे थे अल्फाज -
बुजुर्गों ने कहा -
“दोनों को शर्म है ना लिहाज।“

मनचलों की तरह तरह की बात,
उनके अपने अपने थे जज्बात.
“मियां बीबी थोड़े हैं,
घर से भागे छोरी छोरे हैं”
“दुनियां से डर जंगल में भाग आये हैं“

“देखा दोनों कैसे मजे से बैठे हैं,
कैसे सट कर बैठे हैं“
देख तो छोरी कैसे,
चटकारे ले ले कर
बातें कर रही है
“मुझे तो कोई टैक्सी लग रही है“
“सोचा होगा यहाँ है सुरक्षित एकांत,
मिलेगा अकेलापन नितांत।“

सुनकर ऐसी ऐसी बातें,
उनकी रुक गई साँसें,
शर्म से झुक गई आँखें,
अपनी गलती को देख,
सोचा जैसा देश वैसा भेष,
शिव जी ने कहा -
" प्रिये ! मैं ऐसा करता हूँ,
तुम बैठो, मैं पैदल चलता हूँ।“

अभी थोड़ी दूर ही चले थे कि -
एक नारी कंठ की आवाज आई .
“कितनी कुलक्षणा, बेशर्म है लुगाई“
किसी नर कंठ ने गुहार लगाईं -
“लगता है जोरू का गुलाम है भाई।“

पार्वती जी ने शिवजी से,
चुटकी लेते हुए कहा -
“पुरुष ने जो बात कही है,
लगती कुछ सही है”
शिवजी ने समय का फायदा उठाया,
पार्वती जी को सुझाया -
“परिस्तिथियाँ बदलो -
मैं नंदी पर बैठता हूँ,
तुम पैदल चल लो।“

कुछ दूर चले,
तो लोग पीछे से कहते मिले -
“मर्द कितना क्रूर, पापी है,
अन्यायी है, अधर्मी है,
इसे पुरुष होने का अहम् है,
कैसा बेशर्मी है।“

इस बार यह सुन कर,
दोनों पैदल चलते हैं,
आगे कुछ इंसान और मिलते हैं,
जो इन्हें देखते हैं,
मुस्काते हैं, फरमाते हैं-
“अरे ! कैसे पागल हैं,
सवारी के होते भी,
पैदल जाते हैं ?”

पार्वती जी ने शिवजी को ओर,
निहारा और पूँछा -
“ स्वामी पृथ्वी पर,
ऐसी वातों का क्या रहस्य है?”
तो बिना किये बहस,
शिवजी ने समझाया -
" प्रिये! पृथ्वी पर जो करना है करो,
व्यर्थ की आलोचना से,
बिलकुल मत डरो,
यहाँ दूसरों के कहने पर जाओगी,
तो यहाँ दो दिन नहीं रह पाओगी।
एक बात और-
यह पृथ्वी ग्रह के इंसान हैं,
जो अपने दुख से नहीं,
दूसरों के सुख से परेशान हैं।"

.    .    .

Discus