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नारी प्रधान, ये समाज होता जा रहा है !
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
घर का सारा बोझ उसके हाथ में था,
पुरुष तो बस स्वार्थ वश, साथ में था,
अब रूढिवादी सोच, बदला जा रहा है ।
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
देहरी की बन्दिशें, जिस पर लगीं थी,
उन्मुक्त होकर आज नभ छूने लगी है,
सब बन्दिशों को आज, तोडा जा रहा है।
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
अन्तरिक्ष तक पहुंच उस की हो चुकी है,
चुनौतियों से कभी, न डरी, टूटी, झुकी है,
ब्रह्माण्ड का हर राज खुलता जा रहा है ।
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
वो कल्पनाओं का, वृहद आकाश है अब,
स्वप्न नयनों के, साकार करने हैं उसे सब,
निरन्तर हौसला, उसका बढता जा रहा है ।
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
धार का रुख, आज मोडा जा रहा है,
वर्चस्व पुरुषों का नकारा जा रहा है,
नर दम्भवश खुद पिछड़ता जा रहा है ।
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
अहंकारी, पुरुष खुद बनने लगा था,
जुल्मों की हद पार वह करने लगा था,
अब अपनी ही करतूत के फल पा रहा है ।
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?
नारी प्रधान, ये समाज होता जा रहा है !
तो पुरुष क्यों भयभीत होता जा रहा है ?