खौफ, सन्नाटा यहाँ पसरा हुआ हर ओर,
थमती सी सांसें, धड़कन,
आँखें नम, व्याप्त गम,
विपत्ति छा गई घनघोर,
प्रतिध्वनि में गूंजता हरओर,
हर पल मौत का ही शोर,
महा मानव जो समझता रहा खुद को,
वो स्वयं लाचार बेबस, हो गया कमजोर.
प्रतिध्वनि में गूंजता हरओर,
हर पल मौत का ही शोर।
कैद खुद हम हो रहे अपने घरों में.
उच्श्रंखलता खोई, संजोई बस इन्हीं सिमटे परों में,
दहशतों से काँपता तन मन फुसफुसाए,
कौन, कैसा, मौन जैसा अदृश्य आदमखोर?
प्रतिध्वनि में गूंजता हरओर,
हर पल मौत का ही शोर।
यद्यापि अपने सभी बैठे घरों में, पर अनेको दूर भी हैं,
दूध मुँहे बच्चे नहीं जो, हम जानते, वह शूर भी हैं,
मौन रह कर ही प्रकृति ने, सृष्टि को दिया झकजोर।
प्रतिध्वनि में गूंजता हरओर,
हर पल मौत का ही शोर।