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द्रवित होता जो मन
निचोड़ लेता है तन
जो उठता है अंत:हूक
उसे ही कहते हैं दुःख !!
हृदय पर हो आघात
बस कोई सी भी बात
अंत:द्वंद्व करे क्रीड़ा
बस ! यही तो है पीड़ा !!
छुप कर जो लेते रो
घूँट आंसू पी लेते सो
हो दुरूह जिसे भेदना
हाँ ! यही तो है वेदना !!
कह सके न सह सके
न जी सके न मर सके
ज़िंदगी हो रही नष्ट
सखि ! यही तो है कष्ट !!
हो स्त्री या कि पुरुष
अछूता न कोई भाव से
दुःख पीड़ा वेदना कष्ट
उसे भी होता अभाव से
किंतु स्त्री हो संकुचित
रो देती है स्वभाव से
पर पुरुष बन कठोर
कार्य करता प्रभाव से !!

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