डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म उस अस्पृश्य समाज का उद्धार करने के लिए ही हुआ हो ऐसा उनका जीवन प्रत्यक्ष रूप से था। सामाजिक और राजनीतिक वर्ग में जाति और धर्म के सुधार करने में बड़ा योगदान रहा है। सामाजिक दोष दूर करके समाज में एक नई क्रान्ति की शुरुआत की थी।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर मूलतः एक समाज सुधारक अथवा समाजिक चिंतक थे। वह हिन्दु समाज द्वारा स्थापित समाजिक व्यवस्था से काफी असंतुष्ट थे और उन में सुधार की मांग करते थे ताकि सर्व धर्म सम्भाव पर आधारित समाज की स्थापना की जा सके। अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के उन्मूलन और अस्पृश्यों की भौतिक प्रगति के लिए अथक प्रयास किय । वे 1924 से जीवन पर्यन्त अस्पृश्यों का आंदोलन चलाते रहे। उनका दृढ विश्वास था कि अस्पृश्यता के उन्मूलन के बिना देश की प्रगति नहीं हो सकती। अम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता का उन्मूलन जाति-व्यवस्था की समाप्ति के साथ जुड़ा हुआ है और जाति व्यवस्था धार्मिक अवधारणा से संबद्ध है। 

समाजिक सुधारों को प्रमुखता

समाज सुधार हमेशा डॉ. अम्बेडकर की प्रथम वरीयता रही। उनका विश्वास था कि आर्थिक और राजनीतिक मामले समाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति के बाद निपटाये जाने चाहिए। अम्बेडकर का विचार था कि अर्थिक विकास सभी समाजिक समस्याओं का समाधान कर देगा। जातिवादी हिंदुओं की मानसिक दासता की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार जातिवाद के पिशाच/बुराई के निवारण के बिना कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। हमारे समाज में क्रांतिकारी बदलाव के लिए समाजिक सुधार पूर्व शर्त है समाजिक सुधारों में परिवार व्यवस्था में सुधार और धार्मिक सुधार भी शामिल है परिवार सुधारों में बाल विवाह जैसे कुप्रथाओं की समाप्ति भी शामिल है। अम्बेडकर ने भारतीय समाज में महिलाओं की गिरती स्थिति की कटु आलोचना की उनका मानना था कि महिलाओं को पुरूषों के समान अधिकार मिलने चाहिए और उन्हें भी शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू धर्म में महिलाओं को सम्मति के अधिकार से वचिंत रखा गया है। हिंदू कोड बिल जो उन्होंने ही तैयार करवाया था उन्होने यह ध्यान रखा कि महिलाओं को भी सम्पति में एक हिस्सा मिलना चाहिए। उन्होंने अस्पृश्यों को संगठित करते समय अस्पृश्य समुदाय की महिलाओं का आगे आने के लिए सदैव आहवान किया कि वे राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में भाग ले।

जाति प्रथा का विरोध

डॉ. भीम राव अम्बेडकर जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे। जाति प्रथा का विरोधी होने का मुख्य कारण उनके स्वयं का भुक्त भोगी होना था वह जाति प्रथा को वर्ण व्यवस्था का आधुनिक और घृणित रूप मानते थे क्योंकि समयानुसार वर्ण व्यवस्था में जटिलता आ गई और उसने जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया था। अब व्यक्ति को उसके कार्यों की अपेक्षा जाति से जाना जाने लगा था। जहां समान जाति की उपजातियों के लोगों में भोजन, सदाचार व्यवसाय की समानता होने से विवाह सम्बन्धों की स्थापना हुई और उसने जाति व्यवस्था को मजबूती एवं स्थायित्व प्रदान किया। डॉ। भीम राव अम्बेडकर ने जाति प्रथा के विरोध के निम्नलिखित कारण बताए-

  1. यह प्रथा निम्न वर्गों के लोगों के गुणों एवं प्रतिमा की उपेक्षा करती है। 
  2. जति प्रथा अंतजातीय विवाह सम्बधों का बहिष्कार करती हैं।
  3. यह समाज में विद्यमान विभिन्न जातियों में परस्पर द्वेष और तनाव को पैदा करती है।
  4. यह व्यवस्था प्रजातन्त्र विरोधी है क्योंकि प्रजातन्त्र में समानता स्वतन्त्रता न्याय और बंधुत्व पर बल दिया जाता है।

डॉ. अम्बेडकर ने जाति प्रथा को मानवीय विरोधी माना क्योंकि यह निम्न वर्गों को घृणित और अमानवीय कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। इन्ही आधारों पर डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने जाति प्रथा का विरोध किया।

पुरोहितवाद और मनुस्मृति का विरोध

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का विचार था कि अछूत और दलित वर्ग के लोगों को सामाजिक समानता और न्याय मिलना चाहिए। यह सांस्कृतिक और सामाजिक कार्य हैं। इसके लिए हिन्दू समाज में बुनियादी स्तर पर सुधार किए जाने की आवश्यकता हैं। हिन्दू धर्म में कठोरता और रूढ़ियों के कारण उत्पन्न अमानवीय परम्पराओं को समाप्त किया जाना चाहिए। उनके सुझाव थे कि -

  1. हिन्दू धर्म का एक प्रामाणिक ग्रंथ होना चाहिए, जो सभी हिन्दुओं द्वारा स्वीकृत हो जैसा कि ईसाइयों, मुसलमानों, सिक्खों आदि में हैं।
  2. हिन्दुओं में पुरोहितवाद समाप्त किया जाना चाहिए। यदि पुरोहितवाद को बनाए रखना आवश्यक हो तो उसके लिए पैतृक आधार नहीं होना चाहिए। सभी को समान अधिकार होना चाहिए।
  3. प्रत्येक पुरोहितों के पास राज्य द्वारा मान्य धार्मिक कार्यक्रमों तथा उत्सवों को सम्पन्न करने के लिए सनद होनी चाहिए।
  4. पुरोहित एक प्रकार से सरकारी नौकर होने चाहिए।
  5. पुरोहित की संख्या लोगों की आवश्यकताओं के मुताबिक निर्धारित की जानी चाहिए।

उन्होंने मनुस्मृति का विरोध किया। उनका विचार था कि वर्णाश्रम व्यवस्था में कठोरता लाने का कार्य मनुस्मृति ने किया हैं जिसके कारण अछूतों को सामाजिक हीनता भोगनी पड़ रही है। मनुस्मृति को वे अन्याय की जड़ मानते थे। मनुस्मृति की व्यवस्थाओं के कारण ही अछूतों का सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण होता रहा हैं। अतः उन्होंने मनुस्मृति का विरोध किया।

हरिजन शब्द का विरोध

महात्मा गांधी ने अस्पृश्य को हरिजन की संज्ञा दी। इसके पीछे उनका भाव यह था कि अस्पृश्य वर्ग के अंदर व्याप्त कुण्डा और आत्मग्लानि दूर हो और वे अपने को हीन न समझें। डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने अस्पृश्य वर्ग के लिए हरिजन संज्ञा के प्रयोग का विरोध किया, वे इसे राजनीतिक चाल मानते थे। उनका विचार था कि अन्ततः हरिजन अछूत वर्ग के ही लोग होंगे तब उनमें यह भावना रहेगी ही हम अस्पृश्य हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकेगी। इसके अलावा हरिजन नाम देने के लिए हरिजन सवर्ण लोगों को हमेशा ही अपना उपकारकर्ता मानेंगें।

अस्पृश्यता का अन्मूलन/ अस्पृश्यता को कैसे समाप्त किया जाए?

अस्पृश्यता सम्पूर्ण हिंदू समाज की दासता का संकेत है। अम्बेडकर ने कहा था कि जाति के आधार पर कुछ भी सार्थक सृजित नहीं हो सकता। इसलिए एक जातिविहीन समाज का सृजन किया जाना चाहिए। अंतर्जातीय विवाह जाति को प्रभावी तरीके से नष्ट कर सकते है लेकिन समस्या यह है कि जब तक लोगों के विचारों पर जातिवाद का दबदबा रहेगा तब तक लोग अपनी जाति से बाहर विवाह करने को तैयार नहीं होगे वह छुआछुत को हिन्दु सामाजिक व्यवस्था के लिए एक कलंक मानते थे। अम्बेडकर ने ऐसे उपायों को खत्म करने के कुछ उपाय बताये। इसलिए तीव्र परिवर्तन के लिए जरूरी है कि लोगों को धर्मग्रंथों की पकड़ और परम्पराओं से मुक्त कराया जाए। प्रत्येक हिन्दु शास्त्रों से और वेदों का दास है। जाति का उन्मूलन इन धर्मग्रंथों की महिमा के समाप्त किये जाने पर आधारित है। जब तक धर्मग्रंथ हिन्दुओं पर प्रभुत्वशाली रहेंगे तब तक वे अपनी अंर्तआत्मा के अनुसार कार्य करने को स्वतंत्र नहीं होगें। वंशानुगत पदसोपान में अन्यायपूर्ण सिद्धांतों के स्थान पर हमें समानता, स्वतन्त्रता और भातृत्व के सिद्धान्तों की अपनाना चाहिए। ये किसी भी धर्म की आधारशिला हो सकते हैं।

शिक्षा

अम्बेडकर का विश्वास था कि शिक्षा अस्पृश्यों के सुधार में महत्वपूर्ण योगदान देगी। उन्होंने अपने अनुयायियों को सदैव ज्ञान के क्षेत्र में उच्चता तक पहुंचाने के लिए प्रेरित किया शिक्षा व्यक्ति को अपने आत्म-सम्मान के प्रति जागरूक बनाती है और उन्हे बेहतर भौतिक जीवन की ओर पहुंचने में सहायता प्रदान करती है। अम्बेडकर ने ब्रिटिश शिक्षा नीति की आलोचना की है कि इसने निम्न जातियों में शिक्षा को समुचित रूप में बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजी राज में भी शिक्षा पर उच्च जातियों का एकाधिकार जारी रहा। इसलिए उन्होंने निम्न जातियों और अस्पृश्यों को गतिशील बनाया और सीखने के कई केंद्रों की नीव रखी। अम्बेडकर अस्पृश्यों को उदार शिक्षा और तकनीकि शिक्षा प्रदान करना चाहते थे। वे धार्मिक सहयोग से शिक्षा दिए जाने के विरोधी थे। उन्होंने चेतावनी दी कि केवल धर्मनिरपेक्ष शिक्षा छात्रों में स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों की प्रस्थापना कर सकती है।

आर्थिक प्रगति

एक अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन के बारे में भी अम्बेडकर ने कहा कि अस्पृश्य स्वयं को ग्रामीण समुदाय और इसकी आर्थिक जकड़न से मुक्त कर ले परंपरागत ढांचे में अस्पृश्य कोई विशेष व्यवसाय करने को बाध्य थे । वे अपने जीवनयापन के लिए हिंदू जातियों पर आश्रित थे। उनका हमेशा यही मानना था कि अस्पृश्यों को अपने परंपरागत व्यवसाय बंद कर देने चाहिए। इसके स्थान पर उन्हें नई तकनीकी हासिल करनी चाहिए और नये व्यवसाय शुरू करने चाहिए। उन्हें रोजगार दिलाने में शिक्षा भी सहायक होगी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आश्रित रहने का कोई बिंदू ही नहीं रह गया था। बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण के परिणाम स्वरूप शहरों में रोजगार के व्यापक अवसर विद्यमान थे। इसलिए अस्पृश्यों को यदि जरूरी है तो गांव भी छोड़ देना चाहिए और नये व्यवसाय या कार्य की तलाश करके स्वयं को उसमें लगा देना चाहिए। इसलिए अस्पृश्यों के लिए पहले ग्रामीण बंधनों से मुक्त होना जरूरी है। इसके बावजूद यदि अस्पृश्यों को गांव में रहना पड़े तो उन्हें अपने परंपरागत कार्य बंद कर देने चाहिए और आजीविका के नये साधन ढूंढने चाहिए। यह काफी सीमा तक उनका आर्थिक सुधार करेगी।

अम्बेडकर जी का मानना था कि दलित वर्ग को अपने आप आत्म सम्मान पैदा करना चाहिए एवं सहायता की नीति उनके उत्थान की सर्वोतम नीति है। वे कठिन परिश्रम के समर्थक थे। वे मानवतावाद, सहानुभूति, परोपकार आदि के आधार पर समाज सुधारों में विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि सघर्ष द्वारा ही अपने अधिकारों को जीतना चाहिए।

राजनीतिक सुदृढ़ता

इस दिशा में एक कदम के रूप में अम्बेडकर ने दलित वर्गों को राजनीति में सहभागीता देने को काफी महत्व दिया। उन्होंने कहा कि राजनीतिक शक्ति प्राप्त करके अस्पृश्य अपनी सुरक्षा करने में सक्षम होगे और शक्ति में पर्याप्त हिस्सा ले सकेगे। अम्बेडकर चाहते थे कि अस्पृश्य अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करे और शक्ति में पर्याप्त हिस्सा प्राप्त करे। इसलिए उन्होंने अस्पृश्यों के राजनीतिक संगठन बनाये।

धर्म परिवर्तन

अम्बेडकर ने जीवन भर हिंदूवाद के दार्शनिक आधार को सुधारने का प्रयास किया। लेकिन वे जानते थे कि हिंदूवाद अस्पृश्यों के प्रति अपनी धारणा में कोई परिवर्तन नहीं लाएगा। इसलिए उन्होंने हिन्दूवाद के विकल्प की खोज की। काफी सोच विचार करने के बाद उन्होने बौद्धवाद को अपनाया और अपने अनुगामियों से भी ऐसा करने को कहा। बौद्धवाद में उनके धर्म परिवर्तन का मतलब था मानवतावाद पर आधारित धर्म में उनकी आस्था अम्बेडकर मानते थे कि बौद्धवाद न्यूनतम वाला धर्म है। इसमें समानता और स्वतंत्रता की भावना का आदर किया जाता है। अन्याय और शोषण का उन्मूलन बौद्धवाद का लक्ष्य था। बौद्धवाद अपनाने के बाद अस्पृश्य अपने लिए एक नई पहचान बना पाने के योग्य होगें। हिन्दुवाद ने उन्हें उत्पीड़न के अलावा कुछ भी नहीं दिया है। एक नया भौतिक जीवन पाने के लिए। उदार भावना के साथ साथ एक नया आध्यात्मिक आधार जरूरी है। बौद्धवाद यह आधार प्रदान करेगा।

अछूत स्वयं अपना सुधार करें

एक ओर जहाँ डाॅ. अम्बेडकर ने जाति-प्रथा, वर्णाश्रम और छूआछूत का विरोध किया तथा हरिजनों के प्रति सवर्ण जातियों के व्यवहार पर कठोर प्रहार किया, वहीं इस बात की ओर भी स्पष्ट संकेत किया कि अछूत वर्ग अपनी वर्तमान स्थिति के लिए काफी सीमा तक स्वयं उत्तरदायी हैं। स्वयं अछूतों के कुछ कार्य और उनकी आदतें ऐसी है कि वे उनमें आगे बढ़ने की प्ररेणा नहीं दे सकतीं। डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने इस बात पर जोर दिया कि हरिजनों को माँगना छोड़ देना चाहिए। मुर्दा जानवर के मांस को खाना छोड़ देना चाहिए। झूठ बोलना बंद कर देना चाहिए तथा मरे हुए जानवर की खाल उतारने का काम बंद कर देना चाहिए। उनका मत था कि ऐसे काम करने से व्यक्ति के जीवन में हीनता आती है तथा वह आत्म गौरव का बोध नहीं कर पाता। वे इस बात पर जोर देते थे कि जीवन में आत्मसम्मान की भावना विकसित होनी चाहिए तथा स्वतंत्रता, समानता और न्यायपूर्ण जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा मिलनी चाहिए। उनका सुझाव था कि अछूतों को संगठित होना चाहिए, उन्हें शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए तथा अन्याय और अत्याचार के विरोध में संघर्ष करना चाहिए। वे चाहते थे कि अछूत सरकारी नौकरियों में जाएँ, अच्छे कार्य करें, खेती और व्यवसाय करें तथा बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर भी जोर दिया। वे चाहते थे कि अछूत महिलाएँ साफ-सुथरी रहें, अच्छे कपड़े पहनें तथा घर-परिवार को साफ सुथरा रखें।

मूल्यांकन

डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का भारतीय समाज के लिए बड़ा योगदान रहा उन्होंने शोषित, दलित वर्ग को जागृत किया, संगठित किया, उन्हें वाणी दी तथा संघर्ष के लिए तैयार किया। उन्होंने स्पष्ट कहा," खोए हुए अधिकारों की प्राप्ति याचना से नहीं हो सकती, उनके लिए संघर्ष करना पड़ेगा।" बलि बकरियों की चढ़ाई जाती है शेर की नहीं। उन्होंने बकरियों को शेर बनाने का सफल प्रयत्न किया। वर्तमान में कानूनी रूप से दलित, अछूत व श्रमिक वर्ग तथा स्त्रियां अन्य सभी लोगों के साथ बराबरी से खड़े हैं।

टी. के. टोप्पे के अनुसार," अंबेडकर का पांडित्य तथा ज्ञान निस्संदेह उच्च था। संभव है कि आने वाली पीढ़ियां अंबेडकर की राजनीतिक उपलब्धियों को याद न रखें पर ज्ञान के क्षेत्र में उनकी श्रेष्ठ उपलब्धियां कभी विस्तृत नहीं होंगी, राजनेता, सामाजिक, क्रांतिकारी और बौद्ध धर्म के आधुनिक व्याख्याकार के रूप में डाॅ. भीमराव अम्बेडकर को भूलाया जा सकता हैं, पर एक विद्वान के रूप में वे अमर रहेंगे।यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी यह भी पढ़ें; महात्मा गांधी के राजनीतिक विचार यह भी पढ़ें; महात्मा गांधी के सामाजिक विचार अहिंसा पर गांधी जी के विचा यह भी पढ़ें; महात्मा गाँधी का सत्याग्रह का सिद्धांत यह भी पढ़ें; भीमराव अंबेडकर के राजनीतिक विचार यह भी पढ़ें; भीमराव अंबेडकर के सामाजिक विचार यह भी पढ़ें; डा राममनोहर लोहिया के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार यह भी पढ़ें; दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचार

भीमराव अम्बेडकर की वर्तमान में प्रासंगिकता

राजनीतिक क्षेत्रः डॉ. भीमराव अम्बेडकर भारत के आधुनिक निर्माताओं में से एक माने जाते हैं। उनके विचार व सिद्धांत भारतीय राजनीति के लिए हमेशा से प्रासंगिक रहे हैं। दरअसल वे एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के हिमायती थे, जिसमें राज्य सभी को समान राजनीतिक अवसर दे तथा धर्म, जाति, रंग तथा लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए। उनका यह राजनीतिक दर्शन व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंधों पर बल देता है।

उनका यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक आर्थिक और सामाजिक विषमता समाप्त नहीं होगी, तब तक जनतंत्र की स्थापना अपने वास्तविक स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकेगी। दरअसल सामाजिक चेतना के अभाव में जनतंत्र आत्मविहीन हो जाता है। ऐसे में जब तक सामाजिक जनतंत्र स्थापित नहीं होता है, तब तक सामाजिक चेतना का विकास भी संभव नहीं हो पाता है।

इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर जनतंत्र को एक जीवन पद्धति के रूप में भी स्वीकार करते हैं, वे व्यक्ति की श्रेष्ठता पर बल देते हुए सत्ता के परिवर्तन को साधन मानते हैं। वे कहते थे कि कुछ संवैधानिक अधिकार देने मात्र से जनतंत्र की नींव पक्की नहीं होती। उनकी जनतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना में ‘नैतिकता’ और ‘सामाजिकता’ दो प्रमुख मूल्य रहे हैं जिनकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में बढ़ जाती है। दरअसल आज राजनीति में खींचा-तानी इतनी बढ़ गई है कि राजनैतिक नैतिकता के मूल्य गायब से हो गए हैं। हर राजनीतिक दल वोट बैंक को अपनी तरफ करने के लिए राजनीतिक नैतिकता एवं सामाजिकता की दुहाई देते हैं, लेकिन सत्ता प्राप्ति के पश्चात इन सिद्धांतों को अमल में नहीं लाते हैं।

समानता को लेकर विचारः डॉ. अम्बेडकर समानता को लेकर काफी प्रतिबद्ध थे। उनका मानना था कि समानता का अधिकार धर्म और जाति से ऊपर होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना किसी भी समाज की प्रथम और अंतिम नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर समाज इस दायित्व का निर्वहन नहीं कर सके तो उसे बदल देना चाहिए। वे मानते थे कि समाज में यह बदलाव सहज नहीं होता है, इसके लिए कई पद्धतियों को अपनाना पड़ता है। आज जब विश्व एक तरफ आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ विश्व में असमानता की घटनाएँ भी देखने को मिल रही हैं। इसमें कोई दो राय नही है कि असमानता प्राकृतिक है, जिसके चलते व्यक्ति रंग, रूप, लम्बाई तथा बुद्धिमता आदि में एक-दूसरे से भिन्न होता है। लेकिन समस्या मानव द्वारा बनायी गई असमानता से है, जिसके तहत एक वर्ग, रंग व जाति का व्यक्ति अपने आप को अन्य से श्रेष्ठ समझ संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है। यूएनओ द्वारा इस संदर्भ में प्रति वर्ष नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है, जो आज भी समाज में व्याप्त असमानता को प्रकट करता है। भारत में इस स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 14 से 18 में समानता का अधिकार का प्रावधान करते हुए समान अवसरों की बात कही गई है। यह समानता सभी को समान अवसर उपलब्ध करा सकें, इसके लिए शोषित, दबे-कुचलों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। इस प्रकार अम्बेडकर के समानता के विचार न सिर्फ उन्हें भारत के संदर्भ में, बल्कि विश्व के संदर्भ में भी प्रासंगिक बनाते हैं।

आर्थिक क्षेत्रः दरअसल आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबी, बेरोजगारी, आय एवं संपत्ति में व्यापक असमानता, अशिक्षा और अकुशल श्रम इत्यादि समस्याएँ व्याप्त हैं। अर्थव्यवस्था को लेकर डॉ. अम्बेडकर के महत्वपूर्ण विचार को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-

The problem of the rupee : 15 origin and its solution नामक अपनी रचना में डॉ. अम्बेडकर ने 1800 से 1893 के दौरान, विनिमय के माध्यम के रूप में भारतीय मुद्रा (रुपये) के विकास का परीक्षण किया और उपयुक्त मौद्रिक व्यवस्था के चयन की समस्या की भी व्याख्या की। आज के समय में जब भारतीय अर्थव्यवस्था मुद्रा के अवमूल्यन और मुद्रास्फीति की समस्या से दो-चार हो रही है तो ऐसे में उनके शोध के परिणाम न सिर्फ समस्याओं को समझने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं बल्कि वह इसके समाधान को लेकर आगे का मार्ग भी प्रशस्त कर सकते हैं।

अम्बेडकर ने 1918 में प्रकाशित अपने लेख भारत में छोटी जोत और उनके उपचार (Small Holdings in India and their Remedies) में भारतीय कृषि तंत्र का स्पष्ट अवलोकन किया। उन्होंने भारतीय कृषि तंत्र का आलोचनात्मक परीक्षण करके कुछ महत्वपूर्ण परिणाम निकाले, जिनकी प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है। उनका मानना था कि यदि कृषि को अन्य आर्थिक उद्यमों के समान माना जाए तो बड़ी और छोटी जोतों का भेद समाप्त हो जाएगा, जिससे कृषि क्षेत्र में खुशहाली आएगी। उनके एक अन्य शोध ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास (The Evolution of Provincial Finance in British India) की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। उन्होंने इस शोध में देश के विकास के लिए एक सहज कर प्रणाली पर बल दिया। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन सरकारी राजकोषीय व्यवस्था को स्वतंत्रत कर देने का विचार दिया। भारत में आर्थिक नियोजन तथा समकालीन आर्थिक मुद्दें व दीर्घकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जिन संस्थानों को स्वतंत्रता के पश्चात स्थापित किया गया उनकी स्थापना में डॉ. अम्बेडकर का अहम योगदान रहा।

सामाजिक क्षेत्रः अम्बेडकर का सम्पूर्ण जीवन भारतीय समाज में सुधार के लिए समर्पित था। उन्होंने प्राचीन भारतीय ग्रन्थों का विशद अध्ययन कर यह बताने की चेष्टा भी की कि भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा तथा अस्पृश्यता का प्रचलन समाज में कालान्तर में आई विकृतियों के कारण उत्पन्न हुई है, न कि यह यहाँ के समाज में प्रारम्भ से ही विद्यमान थी।

सामाजिक क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए प्रयास किसी भी दृष्टिकोण से आधुनिक भारत के निर्माण में भुलाये नहीं जा सकते जिसकी प्रासंगिकता आज तक जीवंत है। सामाजिक क्षेत्र में उनके विचारों की प्रासंगिकता को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-

  • अम्बेडकर ने वर्ण व्यवस्था को अवैज्ञानिक, अत्याचारपूर्ण, संकीर्ण तथा गरिमाहीन बताते हुए इसकी कटु आलोचना की थी।
  • अम्बेडकर का मत था कि समूह तथा कमजोर वर्गों में जितना उग्र संघर्ष भारत में है, वैसा विश्व के किसी अन्य देशों में नहीं है।
  • इस व्यवस्था में कार्यकुशलता की हानि होती है, क्योंकि जातीय आधार पर व्यत्तिफ़यों के कार्यों का पूर्व में ही निर्धारण हो जाता है।
  • अन्तर्जातीय विवाह इस व्यवस्था में निषेध होते हैं।
  • सामाजिक विद्वेष और घृणा के प्रसार से इस व्यवस्था को बल मिलता है।

उल्लेखनीय है कि इन भेदभावों के खिलाफ उन्होंने व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होंने अछूतों को भी मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया।

महिलाओं से संबंधित विचारः डॉअम्बेडकर भारतीय समाज में स्त्रियों की हीन दशा को लेकर काफी चिंतित थे। उनका मानना था कि स्त्रियों के सम्मानपूर्वक तथा स्वतंत्र जीवन के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। अम्बेडकर ने हमेशा स्त्री-पुरुष समानता का व्यापक समर्थन किया। यही कारण है कि उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम विधिमंत्री रहते हुए ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में प्रस्तुत किया और हिन्दू स्त्रियों के लिए न्याय सम्मत व्यवस्था बनाने के लिए इस विधेयक में उन्होंने व्यापक प्रावधान रखे। उल्लेखनीय है कि संसद में अपने हिन्दू कोड बिल मसौदे को रोके जाने पर उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की बात कही गई थी। दरअसल स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के पश्चात व्यावहारिक धरातल पर इन अधिकारों को लागू नहीं किया जा सका है, वहीं आज भी महिलाएँ उत्पीड़न, लैंगिक भेदभाव हिंसा, समान कार्य के लिए असमान वेतन, दहेज उत्पीड़न और संपत्ति के अधिकार ना मिलने जैसी समस्याओं से जूझ रही हैं।

इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि हाल ही में समान नागरिक संहिता का प्रश्न पुनः उठाया गया है। उसका व्यापक पैमाने पर विरोध किया गया, जबकि बाबा साहब अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता का प्रबल समर्थन किया था।

शिक्षा संबंधित विचारः अम्बेडकर शिक्षा के महत्व से भली-भाँति परिचित थे। दरअसल अछूत समझी जाने वाली जाति में जन्म लेने के चलते उन्हें अपने स्कूली जीवन में अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा था। उनका विश्वास था कि शिक्षा ही व्यक्ति में यह समझ विकसित करती है कि वह अन्य से अलग नहीं है, उसके भी समान अधिकार हैं। उन्होंने एक ऐसे राज्य के निर्माण की बात रखी, जहाँ सम्पूर्ण समाज शिक्षित हो। वे मानते थे कि शिक्षा ही व्यक्ति को अंधविश्वास, झूठ और आडम्बर से दूर करती है। शिक्षा का उद्देश्य लोगों में नैतिकता व जनकल्याण की भावना विकसित करने का होना चाहिए। शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण में भी योगदान दे सके।

उल्लेखनीय है कि डॉ. अम्बेडकर के शिक्षा संबंधित यह विचार आज शिक्षा प्रणाली के आदर्श रूप माने जाते हैं। उन्हीं के विचारों का प्रभाव है कि आज संविधान में शिक्षा के प्रसार में जातिगत, भौगोलिक व आर्थिक असमानताएँ बाधक न बन सके, इसके लिए मूलअधिकार के अनुच्छेद 21-A के तहत शिक्षा के अधिकार का प्रावधान किया गया है, जो उनकी प्रासंगिकता को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रमाणित करती है।

अधिकारों को लेकर विचारः डॉ. अम्बेडकर अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों पर बल देते थे। उनका मानना था कि व्यक्ति को न सिर्फ अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए जागरूक होना चाहिए, अपितु उसके लिए प्रयत्नशील भी होना चाहिए, लेकिन हमें इस सत्य को नहीं भूलना चाहिए कि इन अधिकारों के साथ-साथ हमारा देश के प्रति कुछ कर्त्तव्य भी है। अधिकारों को लेकर उनके यह विचार वर्तमान समय में और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। दरअसल वर्तमान विश्व में सरकारें अपने नागरिकों को विकास के समान अवसर प्राप्त करने के लिए कुछ मौलिक अधिकार प्रदान करती हैं, हालाँकि मौलिक अधि कारों के साथ-साथ मौलिक कर्त्तव्यों की भी बात की जाती है।

श्रमिक वर्ग के लिए कार्यः बाबा साहेब सिर्फ अछूतों, महिलाओं के अधिकार के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज के पुनर्निर्माण के लिए भी प्रयासरत रहे। उन्होंने मजदूर वर्ग के कल्याण के लिए उल्लेऽनीय कार्य किये। पहले मजदूरों से प्रतिदिन 12-14 घंटों तक काम लिया जाता था। इनके प्रयासों से प्रतिदिन आठ घंटे काम करने का नियम पारित हुआ।

इसके अलावा उनके प्रयासों से मजदूरों के लिए इंडियन ट्रेड यूनियन अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम तथा मुआवजा आदि से भी सुधार हुए। उल्लेखनीय है कि उन्होंने मजदूरों को राजनीति में सक्रिय भागीदारी करने के लिए प्रेरित किया। वर्तमान के लगभग ज्यादातर श्रम कानून बाबा साहेब के ही बनाए हुए हैं, जो उनके विचारो को जीवंतता प्रदान करते हैं।

भीमराव अम्बेडकर और महात्मा गांधी के विचारों में मतभेद

महात्मा गांधी और बाबा साहेब आंबेडकर के अनेक मुद्दों पर एक जैसे विचार रहे, लेकिन इसके बावजूद उनके विचारों में मतभेद भी रहे, जिसका जिक्र निम्न बिदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-

  • ग्रामीण भारत, जातिप्रथा और छुआ-छूत के मुद्दों पर डॉ. अम्बेडकर और गांधी जी के विचार एक दूसरे के विरोधी बने रहे। हालांकि दोनों की कोशिश देश को सामाजिक न्याय और एकता प्रदान करने की थी और दोनों ने इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के अलग-अलग मार्ग भी बतलाए।
  • गांधी जी के मुताबिक यदि जाति व्यवस्था से छुआ-छूत जैसे अभिशाप को बाहर कर दिया जाए तो पूरी व्यवस्था समाज के हित में काम कर सकती है। इसकी तार्किक अवधारणा के लिए गांधी ने गाँव को एक पूर्ण समाज बोलते हुए विकास और उन्नति के केन्द्र में रखा।
  • गांधी के विपरीत अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था को पूरी तरह से नष्ट करने का मत सामने रखा। अम्बेडकर के मुताबिक जब तक समाज में जाति व्यवस्था मौजूद रहेगी तब तक छुआ-छूत जैसे अभिशाप नए-नए रूप में समाज में पनपते रहेंगे।
  • गांधी जी ने पूर्ण विकास के लिए लोगों को गाँव का रुऽ करने की वकालत की। गांधी के मुताबिक देश की इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट सिर्फ इंडस्ट्री या फैक्ट्री के जरिए नहीं भरा जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि औद्योगिक विकास को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के केन्द्र में रखते हुए विकसित किया जाए।
  • डॉ. अम्बेडकर का विश्वास था कि बौद्ध धर्म सामाजिक असमानता को समाप्त कर भ्रातृत्व की भावना विकसित करता है। यही कारण था कि अम्बेडकर ने स्वयं अपने जीवन के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। इस संदर्भ में अम्बेडकर के विचार महात्मा गांधी के विचारों से मेल नहीं रखते थे। महात्मा गांधी का यह दृढ़ विश्वास था कि धर्म परिवर्तन करने मात्र से दलित वर्गों की स्थिति में वास्तविक सुधार होगा ही, इसकी कोई निश्चितता नहीं है।

भले ही हम अंबेडकर को संविधान निर्माता मानते हो लेकिन सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत मानना चाहिए ।

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संदर्भ ग्रंथावली:

  • मनुस्मृति
  • डॉ। बाबा साहब अम्बेडकर ( जीवन चरित्र ) चांगदेव भवनराव खेरमोड़े ।
  • डॉ अंबेडकर विचारदर्शन : पी. जी. ज्योतिकर, किशोर मकवाणा, दिलीप कातरिया
  • प्रज्ञा सूर्य: डॉ अलम वकील 

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