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ये शीर्षक थोड़ा आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन ये सच है! अफगानिस्तान वो जन्नत है जिसका सपना हर मुस्लिम को दिखाया जाता है। जहां खुदा के बन्दों, मौलवियों का पाक शासन है। शरिया कानून सरिया लेकर लागू कराया जाता है। अब कहोगे, इसमें जन्नत कहां है? 

तो गौर से इतिहास को उठा कर देखिए कि आज तक तालिबान की आलोचना किसी मुस्लिम राष्ट्र ने नहीं की है, यहां तक की जिस तुर्की और साउदी अरब को कश्मीर में आने का शौक चर्रा रहा है। उन्हें भी आज तक तालिबानी गलत नहीं लगे और पाकिस्तानी काका का तो कहना ही क्या! उनका तो आका है तालिबान।

सूचना तो ये तक कहती है कि तालिबान को हथियार इन्हीं पाकिस्तानी काकाओं से ही प्राप्त होते हैं। खैर वो जो भी हो पर तालिबान का सबसे बड़ा निंदक केवल अमेरिका है क्योंकि ये भस्मासुर उसी का बनाया है और अब उसी पे उल्टा पड़ गया तो विरोध करना जरूरी है और मजबूरी भी। दूसरा विरोधी है बचाखुचा भारत। 

बचाखुचा भारत है भारत का हिंदू समुदाय। क्योंकि मुसलमान कभी मुसलमान का विरोध नहीं कर सकता चाहे वो कैसा भी क्यों न हो। और फिर उनके लिए तालिबान तो खुदा का नेक बंदा है वो अफगानिस्तान में वो कर रहा है जो वो पूरी दुनिया में करना चाहते हैं। रह गए कामयूनिष्ट तो उनकी नजर में गरीब मास्टर के बेटे क्या तालिबानियों को इतना भी अधिकार नहीं है कि वे शासन कर सकें। बताओं भला ये मनुवादी लोग सदियों से दबे कुचले तालिबानियों की तरक्की बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।

खैर, अफीम का नशा ऐसा ही होता है और सुना है अफगान में अफीम बड़ी उच्च स्तर की पाई जाती है। शक होता है कि ये मार्क्स चच्चा कहीं यहीं की अफीम खा के तो धर्म का स्वाद नहीं न बताए थे। खैर ये अफीम बड़ा पौष्टिक आहार होता है, सुना है मुर्दे को भी जिला देता है। पर उसका क्या जो जिंदा हो कर भी मुर्दा है। कोई नहीं रहने दो, हां तो हम बचे खुचे भारत की बात कर रहे थे, इस बचे खुचे भारत ने अमेरिका की बातों में आकर के अफगानिस्तान के फटे में अपना हाथ डाल दिया। जिसके कारण मिला क्या, घंटा!

अमेरिका वाले चाचा बोले कि बेटा तुम विकास करो। सुरक्षा हम करते हैं। जितना चाहिए सब हम देंगे। और भारत इस झांसे में आ गया। खूब निवेश किया वहां। भारत ने अफगानिस्तान में करीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया हुआ है, जिससे वहां संसद भवन, सड़कों और बाँध आदि का निर्माण हुआ है। लुटा दिया अपने को कौड़ियों के भाव। 

अब... अब क्या अमेरिका चच्चा तो दुम दबा के भाग लिए। रह गया निवेश और निवेश परियोजना में लगे भारतीय। अब जब खुले आम अफगानिस्तान में इस बचे खुचे भारत के कामों को लूटा जा रहा। नाश किया जा रहा है तो तमाशबीन बनके देखने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

काश तुम अमेरिका पाजी की बातों में न आए होते! कम से कम अपने पूर्वजों से कुछ सीख लेते। जिन बर्बर अफगान जातियों को तुम्हारे बड़े बड़े आचार्य और महाराजा न सुधार पाए तुम उन्हें सुधारने चले थे। दुर्जेय अंग्रेज जातियां जहां से पराजित होकर लौट गईं तुम उन्हें सुधारने चले थे! जिनके अपने 56 राष्ट्र मिलकर उन्हें न सुधार पाए उन्हें सुधारने चले थे!

हाय ये बचे खुचे भारत! वाह रे तेरी किस्मत! खुद का घर तुझसे सम्हालता नहीं है और चला था अपगानियों को सम्हालने। मैं महाकाल का सेवक तुम्हें आज्ञा देता हूं। लौट जाओ अपने देश और दुबारा इस क्षेत्र में कदम नहीं रखना।

बचा खुचा भारत - पर वो मेरा पड़ोसी है मेरा कर्तव्य मुझे बुलाता है। आप की ही तो शिक्षा है कि आपत्ति में शत्रु की सहायता भी करनी चाहिए। 

महकाल का सेवक - धिक् मूर्ख कैसी मूर्खतापूर्ण बाते कर रहा है। चल यहां से। ये महाकाल की आज्ञा है। 

बचाखुचा भारत - जब तक अफगानिस्तान में शांति बहाल नहीं होती मैं नहीं जाऊंगा।

महाकाल का सेवक ( दयापूर्वक देखता हुआ) अरे मूर्ख, अच्छा बता कोई समाज जब तक खुद शांति न चाहेगा तब तक वो शांत हो सकता है क्या ? जब तक वहां के लोग संगठित होकर अनाचारों का विरोध न करें तब तक कुछ हो सकता है क्या? जिस समाज की सरंचना तालिबानी शासन को आदर्श मानती हो वहां भला सुधार हो सकता है क्या? 

बचाखुचा भारत- मौन रहता है। महाकाल का सेवक - अब चुप क्यों हो गया? बोल निर्गुण्डे। शास्त्रों की आधी अधूरी व्याख्या करता है और फिर अपनी मूर्खता को सही ठहराता।

बोल.. बोलते क्यों नहीं?

बचाखुचा भारत - सहमत हूं। 

महाकाल का सेवक - और फिर मेरे प्यारे जब तू ही नहीं रहेगा तो कैसी सेवा ?

कैसा पड़ोसी ? तू चल मेरे साथ चल के पहले अपना घर बचा। 

मैं अब दैत्य राज जिनपिंग को यहां का काम दूंगा। चीनी समाज की सामाजिक सरंचना। इन बर्बर जातियों के समान है। उसने पहले भी मंगोल जैसी खूंखार जातियों को मिट्टी में मिलाया है। अब उसी को राजा बनाऊंगा। तू चल मेरे साथ।

अबे वो ढपोरशंख तू भी जा यहां से और बंकिमचंद्र को धन्यवाद बोल। भाग साले यहां से।।

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