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केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा सोमवार, 1 फरवरी को वित्त वर्ष 2021-22 के लिए बजट पेश कर दिया गया. बता दें कि ये भारत सरकार के आम बजट (Genera Budget) के रूप में जाना जाता है. इस बजट में सरकार (Government) के खर्चों और आमदनी का लेखा जोखा पेश किया जाता है और उनको प्रभावित करने वाली सरकारी योजनाओं का भी ऐलान किया जाता है. इससे देश का हर नागरिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है.

सरकार का बजट देश की अर्थव्यवस्था का आइना होता है. क्योंकि इसमें सरकार बताती है कि वह अपने खर्चों के लिए पैसा कैसे जुटाएगी. जब सरकार द्वारा आम बजट (Genera Budget) में आमदनी से अधिक खर्च का प्रावधान किया जाता है तो उसे घाटे का बजट(Deficit Financing) कहते हैं. आसान भाषा में यूं समझे कि सरकार का जो रेवेन्यू है यानी राजस्व वह कम हो और योजनाओं पर होनेवाले खर्च ज्यादा हो तब सरकार को मजबूरी में घाटे का बजट बनाना पड़ता है.

जाहिर सी बात है कि यदि सरकार का खर्च उसके राजस्व से ज्यादा है तो उसे इसकी भरपाई के लिए कर्ज लेना होगा. सरकार ने एलान किया है कि इस बार 12 लाख करोड़ का कर्ज़ लेगी. चालू वित्त वर्ष के लिये राजकोषीय घाटा जीडीपी(Gross Domestic Product) का 9.5 प्रतिशत है जो बजटीय अनुमान 3.5 प्रतिशत से कहीं अधिक है. अगले वित्त वर्ष के लिय राजकोषीय घाटा 6.8 प्रतिशत रहने का अनुमान है. जिसे आगे चलकर 4.5 प्रतिशत तक लाया लाया जाएगा.

आखिर घाटे का ही बजट क्यों?

भारत जैसे विकासशील देशों(Developing Countries) में सरकारों को निरंतर विकास के लिए बड़े खर्च करने की जरूरत होती है. कर प्रबंधन द्वारा भी सरकार पैसे जुटाती है, पर गरीब होने के कारण ये देश करों के माध्यम से बड़े संसाधन जुटाने में विफल रहती है. इसलिए आर्थिक विकास के वित्तपोषण के लिए वित्तीय संसाधनों को आकर्षित करने की जिम्मेदारी सरकार पर टिकी होती और कई बार इस खर्च की पूर्ति राजस्व से नहीं हो पाती. इसलिए सरकार को वित्तीय घाटा झेलना पड़ता है.

राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने की तुलना में सार्वजनिक व्यय अधिक महत्वपूर्ण है. अधिक खर्च से चीजों की मांग बढ़ती है. इससे देश में कारोबार को बढ़ावा मिलता है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होता है. कारोबार बढ़ना तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ती दिख रही हो.

लोगों के लिए बड़े स्तर की मूलभूत सुख सुविधाओं और उनकी स्तिथियों को बेहतर करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है. लेकिन सरकार के पास कल्याणकारी योजनाओं को शुरू करने और अच्छे बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं होता है तब सरकार इस तरह का बजट पेश करती है. ऐसी हालत में सरकार को घाटे की वित्त व्यवस्था (deficit financing) का सहारा लेना पड़ता है.

घाटे का बजट से क्या नुकसान है?

कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि एक सीमा तक वित्तीय घाटा अर्थव्यवस्था को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता बल्कि फायदा ही देता है. शर्त ये है कि सरकार का ज्यादा खर्च इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट और एसेट क्रिएशन के लिए हो. वित्तीय घाटा ज्यादा होने से कई तरह की दिक्कतें अर्थव्यवस्था के सामने आ जाती हैं. मसलन नेशनल सेविंग्स एवं इनवेस्टमेंट रेट का कम होना, टैक्स का बोझ बढ़ना एवं व्यापार घाटे में बढ़ोतरी होना आदि. बहुत अधिक राजकोषीय घाटा ब्याज दरों को बढ़ाता है और अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति का दबाव डाल सकता है.

यानी घाटे के बजट से ज्यादा पैसा बाजार में आता है. यह पैसा केंद्रीय बैंक की ओर से आता है. जिससे महंगाई बढ़ जाती है. हालात बिगड़ने पर मंदी भी आ सकती है. 

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