Kisan Andolan News in Hindi

दिल्ली में हाड़ कपाने वाली ठंड के बीच किसानों का आंदोलन जारी है. 2 महीने तो उनके यहां पर विरोध-प्रदर्शन करते हुए हो गए और वो अब तक बिल्कुल भी पीछे नहीं हटते दिख रहे हैं. उनका साफ तौर पर कहना है कि जब तक केंद्र सरकार तीन नए कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती तब तक वो अपना विरोध जारी रखेंगे. 2 फरवरी मंगलवार को भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने अपने बयान में कहा कि जब तक कानून वापस नहीं होता तब तक किसानों की घर वापसी नहीं होगी और आंदोलन अक्टूबर तक चलता रहेगा.

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लेकिन क्या आपको पता हैं कि एक ऐसा भी किसान आंदोलन हुआ, जो पूरे 6 साल था. इतिहास के पन्नों में दर्ज ये आंदोलन महाराष्ट्र में हुआ था. इसे 'चारी किसान हड़ताल' कहते हैं. ये महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में खोटी व्यवस्था के विरोध में शुरू हुआ था. किसानों और मजदूरों के नेता नारायण नागु पाटिल ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था और अंग्रेजों को घुटने पर आने पर मजबूर कर दिया था.

खोटी व्यवस्था क्या है?

खोट लोग बड़े जमींदार थे. पेशवा के वक्त से इन्हें मान्यता मिली हुई थी. इस व्यवस्था के तहत एक बिचौलिया अधिकारी लगान वसूल करता था. इसी बिचौलिए को खोट कहा जाता था. ये खोट स्थानीय राजा की तरह व्यवहार करने लगे थे. राजस्व का एक बड़ा हिस्सा ये अपने पास रख लेते थे. खोट लोग एक एकड़ ज़मीन के बदले एक खांडी चावल की मांग करते थे. अगर कोई किसान नहीं दे पाता था तो उससे अगले साल इसका डेढ़ गुना लिया जाता था. इसलिए जी तोड़ मेहनत करके भी किसानों के हाथ कुछ नहीं आता था.

27 अक्टूबर 1933 के दिन अलीबाग-वडखाल सड़क पर स्थित चारी गांव में एक रैली निकाली गई. नारायण नागु पाटिल इस रैली के आयोजक थे. इस रैली में उन्होंने ये घोषणा की कि किसानों को उपज में उनका वाजिब हक़ जब तक नहीं मिलता तब तक किसान हड़ताल रहेंगे और वे खेतों में फसल नहीं उपजाएंगे.

खेती नहीं करने को लेकर ये हड़ताल 1933 से लेकर 1939 तक कुल छह सालों तक चली. चारी के अलावा 25 और गांव इसमें शामिल थे. हड़ताल के दौरान किसानों को बहुत बुरे हालात का सामना करना पड़ा. लेकिन वो अपनी मांग को लेकर डटे रहे और हड़ताल जारी रही. शेतकारी कामगार पार्टी की जड़ें भी चारी में शुरू हुए आंदोलन से ही निकली थीं.

1939 में सरकार ने बंटाईदारों को सुरक्षा देने की घोषणा की तब ये आंदोलन रुका. इस आंदोलन की वजह से महाराष्ट्र में बंटाईदारों को आधिकारिक तौर पर 1939 में संरक्षण मिला. जोतने वाला ही ज़मीन का सच्चा स्वामि है के सिद्धांत को मानते हुए बटाईदारों को ज़मीन का मालिकाना हक़ दिया गया.

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